केजरीवाल मुफ्तखोर नहीं, जरूरतें पूरा होने की आस में बैठे वर्ग का नेता

क्या मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे रहे केजरीवाल या फिर मुफ्तखोरी शब्द केजरीवाल विरोधी पार्टियों की तरफ से एक राज्य को मिल रहे सुनिश्चित अधिकार (शिक्षा, सड़क, रोजगार, हवा, कपड़ा, पानी) पर गाली है। बात कुछ यूँ समझें कि असल में केजरीवाल उस वर्ग का नेता है जो वर्ग अपनी मूलभूत जरूरत पूरी करने में असमर्थ है। असमर्थता, असमर्थता होती है, उसका कोई राजनीतिक कारण नहीं होता है। सामाजिक आर्थिक और धार्मिक वर्गों में बंट चुका समुदाय, अक्सर सहकार को किनारे करते चलता है। बांटना और बंटने के बाद एक समुदाय कभी शक्तिशाली हो जाता और फिर वही समुदाय शेष नागरिको को दोयम दर्जे का समझने लगता है। हमेशा विषयगत बातों को समझाने के लिए आपको आपकी देखी दुनिया का साक्षात्कार करना जरूरी है। बंधनों के बाँध तोड़ने का नाम ही तो अविरल हो जाना है। 


 

संविधान क्या कहता है और केजरीवाल क्या कर रहे ?  सवाल पर सवाल और प्रश्नचिन्ह पर प्रश्नचिन्ह! केजरीवाल राज्यों की लड़ाई का विजेता नायक तो वहीं केंद्रीय सत्ता में असफल महत्वाकांक्षी नेता बताया जाता है। कभी कभी लगता है, राजनीतिक चालें सीखने में केजरीवाल को कहीं न कहीं बदलना जरूरी था। अफसर से एक्टिविस्ट हो जाना, फिर विद्रोही आम आदमी से मुख्यमंत्री और लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज हो जाना साबित करता है, कि बॉस केजरीवाल अर्जुन है, उसका लक्ष्य मछली की आंख है। ये मूल केजरीवाल के राजनीतिक व्यक्तित्व में है, कि वह एल वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत कर भारतीय राजनीति के परिदृश्य को बदलने का माद्दा रखते हैं। 

 

आखिर सोच रहे होंगे, इतना महिमामंडन क्यों ? महिमामंडन नहीं दरअसल केजरीवाल का सफल और स्थापित मुख्यमंत्री में तब्दीली बताती है, जनता का असल नायक कौन है। हर लड़ाई का एक सार होता है। केजरीवाल की राजनीतिक लड़ाई का सारतत्व आम आदमी की मूलभूत जरूरतों को पूरा करना है। राजनीतिज्ञों को सीखाना है कि असल में लोकतंत्र में राज्य की भूमिका किन लोगों के लिए सुनिश्चित की गई है। 

 

केजरीवाल के 5 साल के कार्यकाल पर नजर डाली जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि आम आदमी की प्राथमिकता सरकार की सबसे बड़ी पहल रही। जिसने भी खास बनने की कोशिश की उसे या तो चलता किया, या उसे पीछे छोड़ दिया। मौलिकता के मुद्दे ही सरकार की प्राथमिकता में रहे। कहीं कोई फिजूल खर्ची नहीं, शिक्षा का बजट बढ़ाना, मोहल्ला क्लिनिक, स्कूलों का असल मायनों में सरकारी तंत्र हो जाना, ब्रिज का निर्माण किफायती दामों में करना, केजरीवाल सरकार की बुनियादी सफलता है, जो उसे जमीन पर सिद्ध करती है। 

 

केजरीवाल ने हर काम समय से किया। अनशन किया तो अनशन किया। आंदोलन चलाया तो आंदोलन चलाया। सरकार बनाई तो एक बेहतरीन सरकार चलाई। सभी आरोपों से बरी इस छोटी हाइट वाले नेता कि नीति, नियत और नेतागिरी पर शंका पैदा नहीं होती। जनता की तो मांग ही यही है। लेकिन इस बीच कुछ ऐसा समय भी आया जब केजरीवाल की अति महत्वकांक्षी छवि को भी जनता ने देखा। पार्टी के वरिष्ठ साथियों से मतभेद कहीं न कहीं एक आंदोलन की आवाज के मरने की गहन पीड़ा से ग्रसित दिखती है। अगर आज भी वो सभी साथी केजरीवाल के साथ होते तो शायद केजरीवाल राष्ट्रीय नेतृत्व का बेहतरीन उभार होते। संगठनात्मक विस्तार में कमजोरी केजरीवाल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल तो उठाती है। हालांकि एक बेहतरीन पार्टी का यही विस्तार उस समय जरूरी हो जाता है, जब एक देश उम्मीद से अपने अपने राज्य का मुख्यमंत्री दिल्ली के मुख्यमंत्री जैसा देखना चाहता हो। और तब यह और जरूरी हो जाता है, जब गैर जरूरी मुद्दों पर राष्ट्रवाद की भट्टी सुलगाई जा रही हो! अमीन!

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