महापुरुष समाज के प्रेरणादायी होते हैं, अब जातियों के लिए जयंतियां गर्व करने का चांस बन गयी हैं


विचार. पहले महापुरुष समाज के आदर्श होते थे, तब उनकी जयंती पर उन्हें याद कर उनसे प्रेरणा ली जाती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं होता। अब महापुरुष जाति के आदर्श होते हैं और उनकी जयंतियां जातियों के लिए गर्व करने का चांस बन गई हैं। एक मित्र ने मुझे 'शेरनी की नस्लें सियार नहीं पैदा करती' वाले स्लोगन के साथ happy parshuram jayanti की बधाई दी है। ऐसे ही आसामाजिक मैसेज से अम्बेडकर जयंती की शुभकामनाएं भी मिली थी। फोटो गूगल पर भी मिल जाएगा। पिछली बार प्रेमचन्द की जयंती पर मुझे मालूम हुआ कि वो श्रीवास्तव थे, जब एक पत्रकार साथी ने 'महान कायस्थ साहित्यकार प्रेमचन्द श्रीवास्तव जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं' भेजी। वरना मैंने तो प्रेमचन्द की जाति जाने बगैर ही उनकी कहानियां पढ़ी हैं।

आज परशुराम जयंती की शुभकामनाएं मिल रही हैं, जिसमें बताया जा रहा है कि ब्राह्मण परशुराम बहुत पराक्रमी थे और उन्होंने बहुत बार धरती को क्षत्रियों से विहीन कर दिया था। गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है-

भुजबल भूमि भूप बिनु किन्हीं।
बिपुल बार महि देवन्ह दीन्हीं।।




लेकिन मेरे मन में शंका होती है। अगर परशुराम ने कई बार पृथ्वी को क्षत्रिय राजाओं से मुक्त किया था तो दुनिया के तमाम देशों के इतिहास में ये क्यों नहीं मिलता कि भारत से आए एक फरसाधारी बाबा ने वहां के राजा को मार दिया था।(यहां धार्मिक आस्था पर प्रश्न है, हम उसका सम्मान करते हैं, लेकिन एक इतिहास के आधार पर तार्किक प्रश्न करना हमारी और आपकी जिम्मेदारी है। लोकतांंत्रिक मूल्य यही कहता है। इतिहास भी सबूत चाहता है।)  तुलसी भक्तिकाल के कवि थे, लेकिन काव्य में युद्ध की स्थिति बयान करने में रीतिकाल तक वीरगाथा काल वाली अतिसंयोक्ति का ही प्रयोग किया जाता रहा। 'साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धरि, सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं' (भूषण)। तुलसी ने भी यहां अतिसंयोक्ति का ही प्रयोग किया है। खैर छोड़ते हैं, साहित्य आलोचना अपना विषय नहीं है। 


हमने इस फोटो में शब्द हटा दिया है।


(इस फोटो में आपत्तिजनक शब्द ब्लर कर दिया है)


(परम्परावादियों के अपने तर्क हैं, यहां संवैधानिक (आर्टिकल 15- समता का अधिकार), साहित्यिक, सामाजिक और वैचारिक बात की जा रही है, क्योंकि संविधान, सहित्य और एक आदर्श समाज जातिगत चीजों में मनुष्य के हितों को नहीं बांधता, परशुराम सभी के हैं, विश्वकर्मा जी सभी के हैं, कृष्ण राम सभी के हैं, अंबेडकर, गांधी सभी के हैं। भावनाएं सभी की सभी में निहित होनी चाहिए। सभी ने राष्ट्र समाज के उत्थान के लिए अपना सहयोग बिना किसी जातिगत भेदभाव के किया है। )

मुझे लगता है कि केवल जाति के लिए गौरव बनने वाले समाज के आदर्श कभी नहीं बन सकते। गर्व से कहो हम ब्राह्मण हैं... गर्व से कहो हम छत्रिय हैं... गर्व से कहो हम बनिया हैं... यादव हैं...तेली हैं... आदि गर्वोक्तियां सोशल वेलफेयर स्टेट की स्थापना के लेकिन खिलाफ हैं। ऐसी बातें वो लोग कहते हैं, जो धर्म, जाति, नस्ल, रंग, खानपान, पहनावे के आधार पर खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं। मैं यहां फिर तुलसी का उद्धरण दे रहा हूं। उन्होंने रामचरित मानस में लिखा है -
अब दीनदयाल दया करिए।
मति मोर विभेदकरी हरिए।

मानस की इस लाइन का रोजाना पाठ करने वाले बहुत से लोग होंगे, जो ईश्वर से भेदभाव करने वाली भावना से मुक्त होने की प्रार्थना करते हैं, लेकिन मुक्त नहीं हो पाते। क्योंकि वो इस लाइन का मतलब नहीं समझते। उन्होंने तुलसी की कविता को धर्मग्रन्थ मान लिया है। प्रायः धर्मग्रन्थों को लोग समझते नहीं, रट लेते हैं। ऐसे लोगों को कबीर ने अंधा और बिना सिर वाला कहा है-

करता दीसे कीरतन ऊंचा करि-करि तुंड
जाने बूझे कुछ नहीं, जैसे अंधा-रुंड।


(बाकि संवैधानिक मुल्यों को बचाने और हर समाज की भावनाओं का सम्मान समान व्यवहार के साथ होगा। मसला यह है कि जातिगत वर्चस्वादिता के चक्कर में हमने परशुराम और अंबेडकर जैसे कई आदर्शों के ज्ञान को लोगों से दूर कर दिया है। यह हर दौर में वर्गीय राजनीति के आधार पर किया जाता है। सभी को मिलकर चलना हर भारतीय का धर्म होना चाहिए। )


(यह लेखक के अपने विचार हैं)


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