स्त्रियों में ममत्व है, शायद यही कारण भी है कि उनके अंतर्मन में स्वत: ही भावनाएं प्रस्फुटित हो जाती है सहज ही। फिर चाहे प्रसंग कोई भी हो, उनके नयनों की सजलता द्योतक है कि वह स्त्री है। स्त्री को करुणा का पर्याय कहा जाता है, किन्तु सिर्फ यह ही सत्य नहीं है।
सत्य यह है भी है कि स्त्रियों के अंतर्मन में भावनाएं अधिक समय तक ठहराव नहीं पा सकती। वे सहनशीलता और सौम्यता में जितनी धीर हैं सम्भवतः उन्हें संजोने में उतनी ही अधीर भी।
वहीं पुरुष स्वभाव इसके ठीक विपरीत होता है। वह न तो अपनी भावनाओं को अश्रुओं से प्रवाहमान कर सकता है और न ही शब्दरुप से उन्हें बाहर कर सकता है। वह प्रतिपल सिर्फ और सिर्फ साक्षात्कार करता है अपनी भावनाओं, वेदनाओं, पीड़ाओं, आवश्यकताओं, आकांक्षाओं और अभिव्यक्ति से।
स्त्री की भांति पुरुष अपने स्नेही, सखा या सम्बन्धी से कभी सहजभाव से साझा नहीं करता अंतर्मन की वह बात, जो सिर्फ उसके मन में कई सालों से दबी पड़ी हो। पाश ने कहा कि सबसे खतरनाक होता है : सब कुछ सहन कर जाना, सपनों का मर जाना, सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना। प्रेम भावनाओं का सम्राट है और मैं समझता हूं वे पुरुष प्रेम को जीते हैं जो प्रेम को ज़िन्दगी मान बैठते हैं। कई हैं जो प्रेम को मौज - मस्ती महज़ मानते हैं लेकिन कई ऐसे भी हैं जो प्रेम में जीवन की खुशी और नज़रिया ढूंढ़ते हैं जीने का। उनके लिए उनकी प्रेमिका के चेहरे पर मुस्कान किसी सम्मान से कम नहीं होती। वे बेइंतेहा मोहब्बत करते हैं अपनी प्रेयसी से लेकिन चाहकर भी जता नहीं पाते।
गीत चतुर्वेदी कहते हैं कि प्रेम में डूबी स्त्री का चेहरा बुद्ध जैसा दिखता है लेकिन मेरा मानना है कि यह विचार सिर्फ स्त्रियों पर ही लागू नहीं होता। असल में प्रेम में डूबा पुरुष स्वयमेव पागल होता है। जैसा कि रामचरित मानस में बाबा तुलसीदास जी ने लिखा कि भक्त और पागल में कोई फ़र्क नहीं होता। वे दोनों दुनिया से परे अपनी दुनिया में मस्त होकर विचरते हैं। यही प्रेम है। जहां, बताया या जताया नहीं जाता सबकुछ। प्रेम जिया जाता है, प्रेम सहा जाता है, प्रेम ओढ़ा जाता है, प्रेम पिया जाता है। पुरुष इसका अनुसरण करते हैं उनमें ममत्व इसलिए नहीं कि वे अभिव्यक्ति को बाहर झलका सके, बल्कि इसलिए नहीं है क्योंकि प्रेम यदि बाहर झलक गया किसी बहाने से तो विस्तार कैसे होगा !
चिश्ती संप्रदाय के संस्थापक बाबा फरीद गजशंकर ने गलत नहीं कहा कि "कागा सब तन खाइयो, मोरा चुन - चुन खइयो मास, दो नैना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस"।