सब कुछ तो मौजूद है यहां,
तुम बस उसे दोहरा रहे हो।
अंदाज़-ए-बयां अलग करके,
ख़ुद को खुदा बता रहे हो।
मैंने रचा है ,ये मेरी उपज है,
ये सब भ्रम के द्वार है,,,,,
इनको अपना कथ्य बता कर
अहम को गले लगा रहे हो।
निकलो भी अब मैं के मोह से,
अंतर में ही शून्य है।
बाहरी मोह में पड़कर
स्वयं से दूरी बढ़ा रहे हो।
तुमको सिर्फ दर्शन करने है
अनहद में ईश्वर है,
स्वयं को दूसरों में ख़ोज कर
ख़ुद को क्यूं भटका रहे हो।।
:- कवियित्री: छवि गौर, उज्जैन, मध्यप्रदेश
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