(कार्तिक सागर समाधिया)। समय की गति ही समय का भ्रम है। आज जब वक्त हर मोर्चे पर संघर्षरत है, तो एक अलग ही ख़्वाब देखे और दिखाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया ने तो समाज के अंदर जहर घोलने का काम ही ज्यादा किया है। मीडिया की एजेंडा सेटिंग्स ने राजनीति से समाज की मूल समस्या को नजरंदाज कर पूंजिपतियों के हाथ में खेलना मुनासिब समझा है। आज आपको जानने के लिए किसी से मिलने की जरूरत नहीं है। बस इतना करिए कि कुछ सेकंड्स निकालकर उसकी सोशल मीडिया साइट्स पर घूम आइए। जजमेंटल होती सोसाइटी निजता के अधिकार को नजरंदाज कर रही है।
लोन पर लिए चंद पैसों का घमंड किसी का भी माथा ठनका सकता है। इज्जत सबको चाहिए, इज्जत कोई किसी की करना नहीं चाहता। सबकुछ दिखावे के चक्कर में हवा होता जा रहा है। धर्म राजनीति के चौराहे पर डांस करता देखा जा सकता है। देवस्थलों पर शांति की जगह व्यापार चल रहा है। सड़कों की गंदगी तो गायब होती नजर आती है, लेकिन मन का मैल अब जड़ स्थाई हो रहा है। प्रशासनिक अफसर रील पर शाहरुख खान की जगह ले चुके हैं। गुजराती ठेकेदार देश निर्माण में लगे हुए हैं। पत्रकार सोशल मीडिया तक सीमित हो गए हैं। गुंडई राजनीति का हिस्सा होकर खतरनाक हो गई है। आँखें साठ सेकंड की रील में पूरा जीवन जी आती है। अगर कुछ रह गया है, बुजुर्गियत का बचा हुआ एहसास। बूढ़े माता पिता बच्चों के बदलते इस रंग ढंग से हैरान भी हैं, और खुश भी। उन्हें नहीं मालूम कि दिखावा सस्ता हो चुका है, और खाद्य प्रदार्थ महंगे।
जिस घी के लिए पैसे नहीं लगते थे, वो असमान छू रहा है। मसालों में फ्रेगरेंस और कलर की मिलावट ने स्वाद को जुबान से छीन लिया है। जगह स्टार्टअप खुले हैं, लेकिन लालाओं के व्यापार कौशल के आगे सबकुछ फेल है। उसकी वजह जनता में बना उनका विश्वास। दिखावे ने इतना नुकसान कर दिया है कि आधा समाज लोन के फेर में गधा हम्माल हो गया है। पत्रकारिता को जो काम समाज जागरूकता के लिए करना था, उसने भी धंधा बना लिया है। खबरों के नाम पर रद्दी घर पहुंचाई जा रही है। हालांकि सबकुछ जो लिखा है, वो बुरा नहीं है, लेकिन जो घट रहा उसका आभा मंडल ही ऐसा है कि लोगों ने उसमें अच्छाई की जगह बुराई खोज ली है।
दोस्ती और रिश्तों के मोर्चे आर्थिक यानी पैसों के लेनदेन तक आकर ठहर गए हैं। सहयोग के नाम पर वीडियो और स्टेटस का युग है। समाज की भलाई अब एक फोटो पर आकर ठहर गई है, जिसके किसी प्रोफाइल पर अपलोड होने की देर है। सारे बेईमान सोशल मीडिया पर खुद को सच्चे बताने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। जिस विधायक मंत्री को फर्ज के लिए जनता की समस्या का हल करना था, वह भी फुटेज युग का शिकार हो गया है। हैरानी तब है जब मंदिर के गर्भ गृह में खड़ा शख्स आकर्षक दिखने के लिए भगवान से लौ नहीं जला रहा बल्कि मोबाइल की टॉर्च के सहारे फोटो के माध्यम से भगवान के करीब नजर आना चाहता है। समाज में वर्चस्वादिता इस तरह बढ़ रही है कि एकजुटता के नाम पर धार्मिक उन्माद को बढ़ावा दिया जा रहा है। वर्चस्वादिता के बढ़ने की वजह धर्म के ठेकेदार नहीं होना है, बल्कि सभी के अपने आर्थिक हित जुड़े हैं।
मैं यह नहीं कहता हमने कुछ बदला है। नहीं। तकनीक ने हमें बदल दिया है। हम अब तकनीकी इंसान में तब्दील हो चुके हैं। यह खतरनाक नहीं है। लेकिन भविष्य के लिए अच्छा भी नहीं है। राजनीति, शिक्षा और सामाजिकता बची हुई है बुजुर्गों के पास, जिनके करीब हमने बैठना छोड़ दिया है। महंगी होती जमीनों पर खेती नहीं, कॉलोनियां काटी जा रही है, बुजुर्गों की विरासत की कीमत लगाई जा रही हैं। यह अंधकार की तरफ बढ़ते कदम है, जिसने रईस होने का शॉर्ट कट फॉर्मूला अपना लिया है।
"भीड़ में खड़ा इतना अकेला इंसान मैंने पहले कभी नहीं देखा। "
दुनिया तेरी रौनक़ से मैं अब ऊब रहा हूं
तू चांद मुझे कहती थी मैं डूब रहा हूं....
तू चांद मुझे कहती थी मैं डूब रहा हूं....
मुनव्वर राणा के इस शेर के साथ सिर्फ अलविदा ही कहने को जी चाहता है..!!
(लेखक पूर्व में बतौर पत्रकार दैनिक भास्कर (भोपाल), एशियानेट न्यूज (बैंगलोर), आजतक/ India Today (New Delhi), रामोजी फिल्म सिटी, और ETV भारत (हैदराबाद) में संपादकीय मंडल का हिस्सा और आधिकारिक पोस्ट पर रह चुके हैं)