लड़ाई जारी है. कोरोना महामारी से जूझते देश के बीच मध्य प्रदेश की राजनीति अपने चाल चरित्र से खेलती हुई किस मोड़ पर जाकर रूकेगी यह कोई नहीं जानता लेकिन वन मैन शो के भरोसे छोड़ दिए गए इस प्रदेश पर अगर कोई संकट आगामी वर्षों में खड़ा होगा तो इतना तय है कि इसके जिम्मेदार वो अनैतिक मूल्य होंगे जिनके खिलाफ कमलनाथ सरकार टिकी हुई थी, और कदमताल करते हुए पिछले एक साल से चल रही थी। यहां कहीं न कहीं कांग्रेस के उस वरिष्ठ वर्ग पर भी सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं, जिसकी ताकत अपनी मुट्ठी में रखने की महत्वाकंक्षा ने बहुत कुछ खो दिया है। सवाल पर सवाल, आखिर क्यों शिवराज एक तरफ केंद्रीय नेतृत्व को अपनी ताकत का प्रदर्शन करा रहे हैं, और क्यो सिंधिया कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता के तौर पर बगावत करने पर उतर आए ? सवाल ये भी क्या केंद्र सरकार के पास जरूरी मुद्दा नहीं था, जब महामारी कोरोना देश में प्रवेश कर रही थी। सभी तिकड़म के बीच विजेता तो कहीं न कहीं कमलनाथ ही नजर आते हैं, और एक योद्धा के जैसे शिवराज एकला चलौ रे की नीति पर मध्यप्रदेश का नेतृत्व संभाल कर दावा ठोक रहे हैं, कि बीजेपी उनके बिना प्रदेश में कुछ भी नहीं है। शिवराज को जब भी केंद्र ने जिम्मेदारी दी, वह एक नेता के तौर पर दमखम भरते नजर आए। शायद बीजेपी भूल जाती है कि यह नेता कहीं न कहीं सूबे के मुख्यमंत्री के तौर पर गुजरात के उस समय के नरेंद्र मोदी के बराबरी का है, जब ऐसा ही भीषण संकट 2002 में आया था। मानव द्वारा लगाई गई सांप्रदायिक आग से पार पाना। केंद्र की राजनीति शिवराज को भाती नहीं है, यही वजह है कि विधानसभा में बहुमत न होने के बाद भी प्रदेश के मामा अपनी अलग ही छवि के साथ फिर सत्ता पर काबिज हो गए हैं। नैतिकता के सवाल पर खड़े दिखते शिवराज क्या अकेले पड़ गए हैं ? या फिर मामा को बाहुबल दिखाना पड़ेगा। या प्रदेश की जनता के हित में वो सब करना पड़ेगा जिससे उन्हें प्रदेश की जनता अपना नेता वापस मान ले। यह सब कोरोना पर टिका है, जब प्रदेश के दो प्रमुख शहर इस विपदा के रेड जोन में शामिल हो गए हैं, और टॉप पांच संक्रमित प्रदेशों में मध्यप्रदेश आ खड़ा हुआ है।
यह बात इस वजह से भी की जा रही है कि जब कोरोना 30 जनवरी को भारत आ गया था, और रिपोर्ट्स के मुताबिक, केंद्र को कमलनाथ सरकार से कोई दिक्कत नहीं थी, तब अचानक से ऐसा हुआ कि एक धड़ा कांग्रेस का बीजेपी में शामिल हो गया। शामिल ही नहीं, संख्या इतनी थी कि इस भरोसे सरकार बन गई। एक सरकार गिर भी गई, हालांकि। इसके बाद शुरू होता है खेल। जिस समय दिग्विजय सिंह का बयान आया कि कुछ गड़बड़ तो पूरी मध्यप्रदेश सियासत में हड़कंप मच गया। फिर खरीद फरोख्त के आरोप और बयानबाजी का दौर। दौर ही नहीं पूरी एक पलटन इस काम में झोंक दी गई। सारे कोरोना का मोह छोड़कर कुर्सी की वास्तविकता साबित करने में लग गए। जब सब अपने अपने दांव पेंच दिखा रहे थे, तो उधर शिवराज भी अपनी तैयारी कर ही चुके थे। कुछ दिनों के बयानबाजी के बाद शिवराज ने अपने सारे विधायक सीहोर की एक होटल में जमा कर दिए। यह शिवराज का गृह जिला है। विधायक इतने थे, कि इससे प्रदेश के इस नेता की ताकत का अंदाजा केंद्र को भी हो गया। बात आई गई। राहुल गांधी इस समय मध्यप्रदेश की सियासत पर कोई बयानबाजी करते दिखाई नहीं दिए। शायद उन्हें पहले से पता था कि सिंधिया बीजेपी का हिस्सा हो गए हैं। पूरे परिवार के साथ जब वह अरुण जेटली के निधन के दौरान उनके निवास पर पहुंचे थे, तब से राजनीतिक गलियारों में सिंधिया की बीजेपी में शामिल होने की खबर आने लगी थी। सिंधिया महत्वकांक्षी नहीं हैं, उनकी बातों से यही जाहिर हुआ कि कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व उन्हें सम्मान नहीं दे रहा। इससे पहले भी सिंधिया पार्टी लाइन से हटकर बीजेपी के कुछ बड़े फैसलों की तारीफ कर चुके थे। इसमें सीएए एनआरसी वाला मुद्दा सबसे बड़ा रहा। सिंधिया को जाने का गम नहीं लगता कांग्रेस को होगा, या फिर राहुल गांधी कुछ नई राजनीति की शुरूआत करना चाहते हों। नैतिकता वाली। शायद। यह लोकसभा चुनाव के बाद उनके कार्यशैली मे हुए बदलाव के बाद नजर तो आने लगा है। मुद्दा आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य जुड़ा होता है तो राहुल इसे फ्रंट पर आकर मोर्चा संभालते हुए सुनोयोजित तरह से जनता के सामने रखते हैं। हाल ही में उनकी कोरोना को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस विपक्ष में राष्ट्रीय नेता की भूमिका को भरते हुए नजर आती है।
मुद्दा कहां छूटेगा यह तो पता नहीं, लेकिन कोरोना महामारी के बीच फंसे शिवराज और केंद्र की पसंद बने नरेंद्र सिंह तोमर एक वैकाल्पिक मात्र नेता जो अब प्रदेश की कुर्सी की तरफ अपनी नजर गढ़ाए हैं। सत्ता नहीं, प्रदेश की वर्चस्ववादिता में लगे बीजेपी संगठन के नेताओं की शिवराज पहली पसंद है। फिलहाल के तौर पर गवर्नर चाहते तो 16 को फ्लोर टेस्ट करा देते, यह उनके संवैधानिक अधिकार में था, लेकिन मामला अटकाए रखा। केंद्र की सत्ता को इतना भान नहीं था कि अगर कोरोना फैला तो मध्यप्रदेश को संभालना मुश्किल हो जाएगा। यहीं शिवराज का वो योगदान सबको याद आया होगा जब उन्होंने सत्ता पाते ही इस प्रदेश को बिमारु राज्य के ठप्पे से मुक्त कराया था। यह ऐसे मुद्दे जिससे पार शिवराज पा सकते हैं। अगर केंद्र उनके आगे झुकता है तो शिवराज मंत्रीमंडल का गठन अपने हिसाब से करना चाहेंगे। जो मध्यप्रदेश की पहली जरूरत है। कोरोना महामारी के बीच अकेले पड़ चुके शिवराज भी चाहते हैं, कि मध्यप्रदेश केंद्र के नियमों से चले लेकिन प्रदेश के लिए कोरोना पर अंतिम फैसला उनका ही हो। प्रदेश की जनता भी यही चाहती है। सिंधिया भी फिलहाल इस महामारी से बाहर ही नजर आते हैं। सड़को पर एकलौता आदमी प्रदेश के चक्कर लगा रहा है। वहीं, सिंधिया अपने नेताओं को पद दिलाने में जोड़ तोड़ करने में लगे हैं। सिंधिया किसी भी तरह से मध्यप्रदेश की सत्ता पर एक अधिकार थोपकर बताना चाहते हैं, कि वो भी प्रदेश के एक नेता हैं। 37% लोगों का मुख्यमंत्री चेहरा हैं। हालांकि अभी इन सभी नेताओं को भूलकर मुख्यमंत्री शिवराज के नेतृत्व में इस बड़ी आपदा से निकलना ही प्राथमिकता होनी चाहिए। अटल जी कहते थे, सत्ता आएगी जाएगी, लेकिन यह देश रहना चाहिए। लगता है इस बार चुनौतियां शिखा खोलकर सामने आई हैं। देखते कौन इस देश और हमारे मध्यप्रदेश का चंद्रगुप्त निकलता है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं)